जैसे ही कोटा का नाम आता है तो दिल और दिमाग में इंजीनियर और डॉक्टर के ख्याल आने लगते हैं। लोगों के मन में ख्याल आने लगते यही वह शहर है जो प्रतिवर्ष लाखो डॉक्टर और इंजीनियर देता है। मन में अख़बार के पहले पन्ने के रंगीन चित्र और आँखों के सामने चित्रों के नीचे लिखी रैंक घूमने लगती हैं।
कोटा आज भी देश को लाखो डॉक्टर और इंजीनियर देता है यह सत्य है, लेकिन कितने बच्चों की सांसे थाम लेता है, इसके बारे में कोई बात नहीं करता है। बचपन खोते बच्चे कब जिंदगी खो देते हैं पता ही नहीं चलता है। पिछले कुछ समय से इंजीनियर डॉक्टर बनने से ज्यादा ख़बरें कोटा से बच्चों के सुसाइड करने की आने लगी है जो निंदनीय है और सोचने को मजबूर कर रही है, आखिर बच्चे क्यों बचपन से आगे बढ़ जिंदगी खो रहे हैं कोटा के कबूतरखानेनूमा कमरो में।
कोटा में कितनी सांसे थमी?
कोटा में प्रतिवर्ष नन्ही जान किताबों के बोझ में दबकर जिंदगी की दौड़ के सामने आत्मसमर्पण कर देती है। यह सिलसिला सालो से चल रहा हैं। प्रतिवर्ष जिंदगी को किताबों के सामने हारने वालों की संख्या देखने को मिली है अगर वर्ष 2020 और 2021 को छोड़ दिया जाए (कोवीड के दौरान शून्य कक्षा नीति) तो पिछले दस सालों से यह सिलसिला जारी है।
क्रम संख्या | वर्ष | संख्या |
---|---|---|
1 | 2015 | 18 |
2 | 2016 | 17 |
3 | 2017 | 7 |
4 | 2018 | 20 |
5 | 2019 | 18 |
6 | 2020 | Covid |
7 | 2021 | Covid |
8 | 2022 | 15 |
9 | 2023 | 25 |
10 | 2024 | 4* |
कोटा में बच्चों का जीवन -
घरों से कोसों दूर बच्चे आँखों में सुनहरे कल का सपना लेकर कोटा का रुख करते हैं। यहां आते ही फंस जाते हैं, एक ऐसी जिंदगी में जो कभी उन्होंने जी ही नहीं। अधिकांश नए बच्चे हॉस्टल में रहना शुरु करते हैं, घर से दूर कोटा में शुरु हुआ अपना नवजीवन। हॉस्टल में आते ही जीवन की नई कहानी शुरु होती है एक जैसा ही हर रोज मिलने वाले भोजन से खाने की, नए बच्चों के साथ मेल-मिलाप और कई बच्चों के साथ रहने की। इस परिस्थिति में कई बच्चे खुद को असहज महसूस करते हैं और हॉस्टल से दूर भागने को मजबूर हो जाते हैं।
कुछ बच्चे कुछ ही दिनों में होस्टल को छोड़ शहर की गलियों में छोटे-छोटे कमरों में रहने को भागते हैं। इन कमरों में सुविधा के नाम पर एक पंखा होता है। बड़े घरों से आने वाले बच्चों को अपने को परिस्थितियों में अनुकूल करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दिन में तो वो सूरज की किरण निकलते ही बस, टेंपो और अन्य परिवहन के साधनो से लटक कर कई तो बिना नाश्ता किए ही कोचिंग पहुंचते हैं, जहां से कई बार निकलने में शाम भी हो जाती है। वहाँ दिन के भोजन की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है वैसे ही रात के भोजन के लिए भी टिफिन पर निर्भरता। ऊपर से राजस्थान में गर्मी के दिनों में चमड़ी जला देने वाली धूप में तपते कमरों में खुद को समायोजित करने का सामना करना एक और चुनौती।
कोटा के सितारों के बीच उलझन -
कोटा जहां एक ओर कोचिंग का शहर है, जहां हर गली में स्कूल और कॉलेज है तो दूसरी तरफ बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान जो इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं। इन कोचिंग आने वाले कल के सितारे कबूतरखानेनूमा कमरों में दुबके हुए किताबों में उलझे है। कोचिंग में ये कल के सितारे आम छात्रों के साथ ही कोचिंग लेते हैं और माॅक टेस्ट भी देते हैं। आम छात्रों के मुकाबले में इनका आई क्यू (बुद्धिलब्धि) अधिक होता है। अधिक आई क्यू वाले विद्यार्थी आम विद्यार्थियों के मुकाबले में अधिक अंक लाते हैं तो दूसरी ओर कक्षा में इनके जबाब भी आम विद्यार्थियों के मुकाबले में अधिक और लक्षित होते हैं।
सितारों के बीच में उलझे आम विद्यार्थी भी ऐसे अधिक आई क्यू वाले विद्यार्थियों से प्रेरणा लेने का प्रण लेकर कोटा में खुद को किताबों में उलझा देते हैं। आम विद्यार्थी भी शुरुआत में कल के सितारों से बराबरी करने का प्रयास करते हैं, उनसे कदम मिलाने के प्रयास करते हैं। जब कक्षाएँ शुरु होती है तो समय के साथ कई विद्यार्थी खुद को कल के सितारों के मुकाबले में पिछड़ता हुआ पाते हैं। प्रति सप्ताह होने वाले टेस्ट कुछ विद्यार्थियों के मुँह पर मुस्कान लाता है तो अधिकांश को तनाव और उलफत। नंबर की दौड़ में फंसी नन्ही और दुनिया के ज्ञान से अनजान जिंदगी इस तनाव को ढोने से साफ इंकार कर देती है। कई बार यह तनाव इतना घातक बन जाता है कि किसी नन्ही मासूम और दुनियादारी से अनभिज्ञ जान की साँस की डोरी ही थाम देती है।
तनाव और टेस्ट में कम अंक आने से कोटा में विद्यार्थियों द्वारा सुसाइड किए जाने की ख़बरें आजकल राजस्थान में आम हो गई है।
कबूतरखानेनूमा कमरों में एकांकी जीवन -
कोटा में ना सिर्फ राजस्थान बल्कि पूरे भारत से विद्यार्थी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए प्रतिवर्ष आते रहते हैं। कोटा में हर गली हर मकान में कोचिंग लेने वाले विद्यार्थियों की उपस्थिति आम है। हर गली में विद्यार्थी जरूर मिल जाएगा लेकिन उसके साथ उसका कोई परिजन या साथी नहीं। कोटा के कॉम्पिटिशन ने उन्हें घर तो क्या मित्रों से भी दूर कर दिया है। यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए कोचिंग क्लास और परिजनों की तरफ से दोस्त नहीं बनाये जाने की शर्तें आम है। तो दूसरी ओर किताबों में उलझी नन्ही जान भी घर से दूर प्राथमिकता से किताबों में नजर गाड़ना चाहती है ना कि दोस्तों के साथ समय बिताने मे। इन्हें भी डर है अपने कल की असफलता का और चाहत है सुकून भरे कल की। इनके लिए समय ही धन है, और इस धन का उपयोग पढ़ाई के लिए करना है ना कि किन्ही और बातों में।
एक कहावत आम है पढ़ने वाले विद्यार्थियों में एक अकेला पढ़ता है, दो बाते करते हैं, तीन लड़ते हैं और चार ग्रुप बना दो-दो अलग हो बाते करते हैं। ऐसे में इनकी प्राथमिकता बाते नहीं पढ़ाई है जो अकेले रहते हैं। लेकिन दूसरी और आपने और हम सभी ने एक कहावत सुनी ही होगी 'एक से भले दो'। यह कहावत उनके लिए लागू होती है जो तनाव में हैं, किसी मुश्किल में फंसे हुए हैं। जब कोई मुसीबत में फंसता है तो सबसे पहले भाई, परिवार और मित्र याद आते हैं। वो मुसीबत का सहारा है मुसीबत से निकाल देते हैं, लेकिन कोटा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए कैसे मित्र? यहां मित्र बनाना मनाही है। परिवार उनसे कोसों दूर, भाई भी दूर। अंक गणित और नंबर की दौड़ में पिछड़ने से जब ये नादां तनाव में चले जाए तो भी कोचिंग के साथी चाहकर भी साथ नहीं दे पाते अपनी समय की बर्बादी के डर से।
कई बार तो इनके साथ इतनी भी उलझन होती है कि चाहकर भी अपनी बात दूसरे को नहीं बता सकते क्योंकि दूसरे के पास उसकी किताब और नंबर की दौड़ को छोड़कर कोई और बात सुनने का समय ही नहीं। हर तरफ सिर्फ प्रतियोगिता और एक-दूसरे से आगे निकलने की इस दौड़ में कब कोई जिन्दगी हार जाए पता ही नहीं। कोई हार गया यह किसी को पता भी नहीं चलता सबके पास एक ही परवाह है, अंक और अंक।
टूटते कल के सितारे -
जो प्रतियोगिता की दौड़ में ज़िन्दगी हार रहे हैं, हो सकता है कि वो प्रवेश परीक्षा की अंकों की दौड़ में पिछड़ने के बाद हार रहे हैं। लेकिन जब आप जो हार गए उनके परिवार के प्रति अपनी संवेदनाएं रखते हुए देखे तो दिल के ज़ज्बात बदल जाते हैं। उस वक्त एक ही बात याद आती है इनका तो सर्वोच्च लूट गया। इनका भविष्य और भविष्य का नायक ही नहीं रहा। उनके भविष्य का नायक यूँ ही नहीं चला गया उसने भी बहुत सोचा होगा। उसने जो नोट छोड़ा उसमे जो उसने लिखा वो कागज का महज टुकड़ा मात्र नहीं है वो टूटते सितारे के कांपते हाथो की आखरी निशानी, जिसके सहारे परिजनों को जिन्दगी निकालनी होगी।
य़ह ऊपर जो आप लिखी हुई पंक्ति का स्क्रीनशॉट देख रहे हैं, यह कोई आम पंक्ति नहीं है, य़ह कोटा में अपनी सांसो की डोर थाम लेने वाले विद्यार्थी का दर्द है, जो उसने आखिरी समय में उसी जहर की पुड़िया के काग़ज़ पर लिखा जो उसने निगला।
इन सितारों के माता-पिता भी एक बार पूछ तो लेते तुम्हें क्या करना है? क्या जिन्दगी का अंतिम लक्ष्य प्रवेश है? इससे बाहर कब निकलेंगे माता-पिता। कभी दो पल निकालकर उससे उसका पैशन तो पूछ लेते। क्या दुनिया में ऐसे उदाहरण नहीं हैं जिन्हें बढ़िया कॉलेज में दाखिला नहीं मिला किन्तु उन्होंने नाम कमाया? क्या कोई ऐसा व्यक्ति उनके आसपास नहीं है जो पढ़ नहीं पाया किन्तु आज सफ़ल है? सभी प्रतियोगिता के लिए तो नहीं बने, जो प्रतियोगिता के लिए बने उनकी कल की सफ़लता की गारंटी कौन लेता है। इंजीनियरिंग के बाद एमबीए और फिर वित्तीय सेवाएं देते कईयों को देखा।
सामाजिक दबाब -
कॉलेज में प्रवेश के लिए कोटा आए बच्चे तो जुझ रहे होते हैं अनुकूलन स्थापित करने में लेकिन समाज (मित्र, परिवार और रिश्तेदार) को एक ही उम्मीद यह हमारा हीरो, कल का इंजीनियर या डॉक्टर। उनकी ऐसी उम्मीदों का भार नन्ही जान जो अनजान शहर में कोने जितने कमरे में एकांत में बसी हुई है उसके लिए उनकी ऐसी उम्मीदों का भार कितना है, यह सोचते तक नहीं है। कुछ के तो माता-पिता अपने अधूरे सपने बिना अपने बच्चों की प्रतिभा का परिक्षण और छानबीन किए ही पूरे करने की जिम्मेदारी बच्चों पर लाद देते हैं। ऐसे बच्चे अपनी प्रतिभा और परिजनों की लालचा के भंवर में उलझ डिप्रेशन के शिकार तक हो जाते हैं।
समाज की जिम्मेदारी होती है कि बच्चों को राह दिखाए और बच्चों को तनाव से मुक्त रखे किन्तु कोसों दूर बैठे मित्र और रिश्तेदार उनके तनाव को भांप भी नहीं पाते हैं। वो बिना बच्चे का चेहरा देखे और उसके हावभाव देखे उस पर अपनी इच्छाओं का बोझ लाद देते हैं। दूसरी तरफ समाज के आशाओं और अपेक्षाओं के बोझ का बच्चे की सांसो की डोर थाम लेती है।
परामर्श से बच्चों के भाव को समझे -
माता-पिता, परिजन, मित्र, रिश्तेदार, समाज और सरकार बच्चों से परामर्श करते रहे, उनके भाव को जाने। बच्चों को एकांत में धकेलने से बचे। उनके ऊपर अपनी इच्छाओं का बोझ ना लादे। अगर समाज का यह रवैय्या जारी रहा तो आने वाला समय बहुत ही घातक होगा।
बच्चों से परामर्श कर उनकी समस्याओं का निदान करे। आप हमेशा अपनी तरफ से ही आपके प्रतिनिधि के तौर पर बच्चों को रखेंगे तो वो अपनी जिंदगी कब जिएंगे। उन्हें भी जीने का अवसर दो। उनसे एकबार दिल खोल कर पूछो तो सही तुम्हें क्या करना है। प्रवेश जिंदगी का लक्ष्य ज़रूर हो सकता है लेकिन जिंदगी नहीं। यह बात आपको उस समय समझ में आएगी जब आप एकबार बच्चे से दिल खोलकर बात करेंगे, उसके दिल के भाव और इच्छाओं को जुबान पर लाने का अवसर देंगे। जब तक आप उसकी नहीं सुनेंगे तब तक सिलसिला जारी रहेगा।
आप कोचिंग सेंटर से बच्चे की सलामती की उम्मीद नहीं कर सकते। कोचिंग सेंटर एक व्यावसाय है, जिसमें भावना नहीं अंक बोलते हैं लेकिन आपके घर में अंक नहीं आपका वारिस सबकुछ है। उसे अंकों की भेंट ना चढ़ने दे।
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