मेले का नाम सुनकर ही बड़े तो क्या बुढ़े भी जवान हो जाते हैं। खो जाते हैं अपने बचपन और मेले जाने की जिद वाली कहानियों में। पहले तो मेले ही वह जगह होती थी, जहां खिलौने मिलते थे। आजकल खिलौने तो कहीं भी मिल जाए ऐसे में मेले का महत्व सिर्फ झूलों तक सीमित हो गया है।
जोधपुर का शीतला माता का मेला 10 दिन तक चलने वाला मेला है। मेले का समापन चैत्र महीने की कृष्ण अष्टमी के दिन होता है। इसी दिन जोधपुर शहर में शीतला माता की पूजा होती हैं। पूरी दुनिया शीतला सप्तमी को हर्षोल्लास से मनाती है तो जोधपुर शहर में शीतला अष्टमी होती है, जो अपने आप में एक अनोखी परंपरा है, इसी के कारण मेला भी अनोखा होता है।
कौन है शीतला माता?
स्कंद पुराण के अनुसार माता शीतला देवो के देव महादेव की जीवन संगिनी है। इनका निवास देवलोक है। एक बार माता अपने पति शिव शंकर के पसीने से उत्पन्न जवारासुर के साथ पृथ्वी पर आई। पृथ्वीलोक पर महाराजा विराट के राज्य में रहने की इच्छा प्रकट की किन्तु राजा विराट ने उन्हें अपने राज्य में रहने की अनुमती नहीं दी। कहा जाता है कि माता जब पृथ्वी पर आई तब उनके हाथ में दाल के कुछ दाने थे और इन्ही दानों के समान ही लाल दाने राजा और प्रजा की त्वचा पर उभरे थे।
राजा द्वारा उन्हें राज्य में रहने की अनुमती नहीं देने से माता शीतला को क्रोध आ गया। माता के क्रोध से राजा और प्रजा को ज्वर आ गया। राजा और प्रजा के शरीर पर लाल दाने उभर आए और शरीर अग्नि की तरह तपने लगा। जब चारो और हाहाकार मचा तो राजा को अपनी भूल का पछतावा हुआ। तब राजा ने माता शीतला को खुश करने के लिए कच्चे दूध और शीतल पकवानों का भोग लगा माता से क्षमा याचना की।
क्यो किया जाता है शीतला माता का पूजन?
शीतला माता को स्वच्छता की देवी माना जाता है। इन्हें चेचक की देवी भी माना जाता है, ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की पूजा करने से पुत्र दीर्घायु होते हैं। शीतला माता की पूजा करने से त्वचा सम्बन्धित रोग नहीं फैलते है। माता शीतला को शीतलता प्रदान करने के लिए मनाया जाता है, जिससे संक्रामक रोगों के प्रसार में कमी आती है। महिलाएं इस दिन पुत्रों के रोग मुक्त होने और रोग निकट न आने की कामना से उपवास भी करती है। माता शीतला का निवास वटवृक्ष में माने जाने के कारण इस दिन वट वृक्ष को जल अर्पित किया जाता है।
स्कंद पुराण में शीतला माता का वर्णन शीतलाष्टाक नाम से किया गया है। मान्यता है कि इस पुराण कि रचना स्वयं महादेव ने की थी। इनकी पूजा शीतलता के लिए की जाती है तथा ठंडे और शीतल भोजन से। इनके हाथ में झाड़ू, दाल के दाने और रोगाणुनाशी जल का लोटा है। ये जल का छिड़काव कर ज्वर सम्बन्धित बीमारियों के साथ हैजे की बीमारी का भी ईलाज करती है।
कैसे की जाती है शीतला माता की पूजा?
माता शीतला की पूजा शीतलता के लिए की जाती है। इनकी पूजा संक्रामक और ज्वर के निदान के लिए पूजा की जाती है। शीतलता के लिए पूजा होने के कारण पूजा ठंडे और शीतल पकवानों के द्वारा की जाती है। माता शीतला गर्दभ की सवारी करती है और नीम की माला पहनती है इसलिए इनकी पूजा-अर्चना में नीम और गर्दभ का भी विशेष महत्व है। मिट्टी के गर्दभ बना उन्हें तिलक लगाया जाता है माता को नीम की माला पहनाई जाती है और भोग प्रसाद चढ़ाया जाता है। माता की पूजा के दिन भोजन नहीं बनाया जाता है और ना ही दिनभर चूल्हा जलाया जाता है, जिसके कारण इनकी पूजा ठंडे अथवा बासी (रात को बनाये पकवानों से सवेरे पूजा) पकवानों का भोग लगाकर पूजा होती है।
शीतला माता समेत ये सात बहने है। इसी कारण शीतला माता की पूजा गर्मी के दिन शुरु होने से पहले सप्तमी को होती है। इन्हें जो जल चढ़ाया जाता है वो जल पूरे घर में छिड़का (छाँट बरती) जाता है। इस दिन पूरे दिन खाना नहीं बनाया जाता है रात को बना (जिस दिन पूजा होती है उसके पहले की रात) खाना खाया जाता है। इन्हें पार्वती का अवतार मानकर भी पूजा की जाती हैं।
जोधपुर में शीतला माता की अष्टमी को पूजा क्यों?
जहां पूरे देश में शीतला माता का पूजन चैत्र कृष्ण पक्ष सप्तमी को होता है वहीं जोधपुर में शीतला माता का पूजन उसके अगले दिन यानी अष्टमी के दिन होता है, जो बाकी सभी जगह होने वाले पूजन से भिन्न है। जोधपुर में शीतला माता की अष्टमी को पूजा-अर्चना किए जाने के पीछे एक इतिहास है। माता को जोधपुर शहर के परकोटे से निष्कासित किए जाने से लेकर अपने आप में एक अनोखा मेला भरे जाने और इस पूजा को होली के त्योहार का ही एक हिस्सा मान लेने तक की।
बताया जाता है कि वर्ष 1752 में जोधपुर के तत्कालीन महाराजा बखत सिंह के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी विजय सिंह जोधपुर के महाराजा बने। विजय सिंह के महाराजा बनने के बाद उनके बड़े पुत्र का निधन चेचक से हो गया। उनके पुत्र का निधन शीतला सप्तमी के दिन हुआ, जिसके कारण महाराजा को शीतला माता पर ही गुस्सा आ गया। गुस्से में आए जोधपुर के महाराजा विजय सिंह ने जोधपुर की जूनी मंडी से शीतला माता की मूर्ति को निष्कासित करवा दिया। जूनी मंडी मंदिर से शीतला माता की मूर्ति को हटाकर कागा (जहां ऋषि काग ने तपस्या की) की पहाड़ियों में रखवा दिया। यहाँ मूर्ति को श्मशान के पास जोधपुर के परकोटा क्षेत्र से बाहर एक बाग में रखवा दिया। कालांतर में यहां एक भव्य मंदिर बना और आज भी इसी जगह श्मशान के पास ही मेला भरता है।
चैत्र कृष्ण अष्टमी को कागा मेला जोधपुर -
होली के आठवें दिन (जोधपुर में बाकी जहां शीतला सप्तमी मनाई जाती है, वहाँ सातवे दिन) माता शीतला की पूजा होती है। इस दिन (शीतला अष्टमी के दिन) जोधपुर दिनभर चूल्हा नहीं जलाया जाता है और बासी खाने से ही माता भोग लगाया जाता है। इसी दिन कागा की पहाड़ियों में माता का मेला भी लगता है, जो अपने आप में एक अनोखा मेला है। यह मेला माता की पूजा के साथ ही होली के त्यौहार के समापन की घोषणा करने वाला मेला होता है।
अष्टमी को सवेरे ही शहर के विभिन्न हिस्सों से लोग रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधानों में सजकर फाग गीत गाते हुए चंग (ढपली) की थाप पर नाचते-गाते माता के दर्शन करने मेले में पहुंचते हैं। माता की पूजा-अर्चना करते हैं। बच्चे झूले झूलते है, महिलाएं खरीदारी करती है। इसी दिन जोधपुर में गैर (होली के बाद घर-घर फाग गाते जाना) होती है जिसके कारण पुरुष दर्शन के पश्चात् चंग ले फाग गाते हुए अपने मोहल्ले का रुख करते हैं। ये चंग की थाप पर गायन करते सभी के घर जाते हैं और रात के बने पकवानों का लुप्त उठाते हैं। शाम को सभी घरों में घूमने के बाद होली के त्यौहार का आधिकारिक रूप से से समापन होने की घोषणा होती हैं।
गांवों में शीतला माता की पूजा -
बचपन के दिनों की शीतला माता की पूजा को याद करता हूँ तो मन हर्षित हो जाता है। अपने-आप में अनोखे इस त्यौहार मे छोटे बच्चों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मैं भी जब छोटा था तो इसका हिस्सा बढ़-चढ़कर बनता था। उन दिनों लगता था यह तो बच्चों का त्यौहार है, अगर घर में बच्चे नहीं है तो इसका कोई महत्व नहीं। हालांकि बचपन की यह सोच अपने आप में सही तो थी लेकिन तब यह पता नहीं था कि हमारे दीर्घायु होने की कामना के लिए यह पूजा-अर्चना की जा रही है। हम तो अपने में ही मस्त रहते थे और सोचते थे कल खाना नहीं बनेगा इसलिए आज कुछ ज्यादा पूरी बना लेते हैं ताकि कल कम ना पड़ जाए से शुरु होकर सवेरे की पूजा तक बढ़चढ़कर भाग लेते।
सप्तमी की शाम को घर में अगले दिन का भोजन बनता है, अगले पूरे दिन भोजन नहीं बनने के कारण बासी (बासोङा) में बाजरे की रोटी, पूरी, हलवा, राबङी, दही बड़े, खीच, पंचकुटा की सब्जी, कड़ी और चावल इत्यादि बना दिया जाता है। शाम को भारी मात्रा में भोजन बनाया जाता है ताकि अगले दिन भोजन की कमी नहीं हो साथ ही परिवार के सदस्यों की पर्याप्तता के अतिरिक्त भी भोजन बनाया जाता है, कोई मेहमान आ जाए यह घ्यान में रखते हुए।
सवेरे औरतें जल्दी उठकर गाय का गोबर ला शीतला माता की सवारी के सात गर्दभ गोबर के और सात ही राख (लकड़ी के चूल्हे की) के बनाती है। एक बढ़िया पत्थर को माता की मूर्ति के रूप में स्थापित कर लाल चुनरी ओढ़ा देती है। फिर थाली में माता के भोग का प्रसाद ठंडे जल का लोटा नीम की माला और खेजड़ी के पेड़ की शाखा ले पूजा करती है। पूजा के पश्चात् घर के बच्चों को गर्दभ बना माता की परिक्रमा दिलाई जाती है। बच्चे ढैंचू-ढैंचू करते हुए लंबी परिक्रमा देते हैं, प्रत्येक परिक्रमा पर उन्हें प्रसाद के रुप में बासी भोजन दिया जाता है। माना जाता है, ऐसा करने से बच्चे स्वस्थ रहते हैं।
शीतला माता के पूजन के एक सप्ताह बाद आने वाले सोमवार को माता की मूर्ति और उनकी सवारी गर्दभ को आक के पेड़ के पास छोड़ दिया जाता है।
महत्वपूर्ण प्रश्न -
प्रश्न: शीतला माता कौनसी देवी है?
उत्तर: शीतला माता चेचक की देवी हैं। इन्हें माता की देवी कहा जाता है।
प्रश्न: शीतला माता कौन है?
उत्तर: शीतला माता देवी पार्वती का एक रुप है, जो महादेव की जीवन संगिनी है।
प्रश्न: शीतला माता की पूजा कब होती है?
उत्तर: शीतला माता की पूजा होली के बाद चैत्र मास की कृष्ण सप्तमी के दिन होती हैं। जोधपुर में अष्टमी के दिन होती है।
प्रश्न: कागा मेला कहाँ भरता है?
उत्तर: शीतला माता के मंदिर कागा, नागौरी गेट, जोधपुर।
प्रश्न: शीतला माता के पिता कौन है?
उत्तर: शीतला माता के पिता ब्रह्मा है।
प्रश्न: शीतला माता की सवारी क्या है?
उत्तर: शीतला माता की गर्दभ (गधे) की सवारी है।
प्रश्न: बासोङा क्या होता है?
उत्तर: शीतला माता की पूजा के दिन घर में खाना नहीं बनाया जाता है, उस दिन पहले दिन का बासी खाना खाया जाता है, इसी बासी खाने को बासोड़ा कहा जाता है।
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