जियेंगे तभी तो जीतेंगे : भास्कर की सराहनीय पहल

जियेंगे तभी तो जीतेंगे : भास्कर की सराहनीय पहल

देश के जाने-माने अखबार दैनिक भास्कर और एनएस पब्लिसिटी ने एक सार्थक पहल की शुरुआत की है। नकारात्मकता से भरी हुई दुनिया में व्यवहारिक रूप से सकारात्मकता की ओर कदम रखने की अपील की है। जो नासमझ है, उनसे समझ की अपील की है।

जियेंगे तभी तो जीतेंगे : भास्कर की सराहनीय पहल

दैनिक भास्कर ने राजस्थान के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय की प्रवेश परीक्षाओं के कोचिंग हब कहलाने वाले राजस्थान के तीन बड़े शहरो से बच्चों से धैर्य रखने की अपील करते हुए शुरुआत की है। भास्कर की अपील की टैग लाइन है "जियेंगे, तभी तो जीतेंगे '।

क्या है 'जियेंगे तभी तो जीतेंगे?'


देश के सबसे बड़े समाचार-पत्र दैनिक भास्कर द्वारा देश के नामी गिरामी इंस्टिट्यूट कि प्रवेश परिक्षा में कम अंक आने से प्रवेश से वंचित रहने वाले विद्यार्थियों से हताश नहीं होने की अपील की है। भास्कर समूह ने प्रवेश से वंचित रहने वाले विद्यार्थियों से अपील की है कि स्वयँ को नुकसान ना पहुंचाये। प्रवेश से वंचित रहना कष्टकारी है, लेकिन जिंदगी में सब कुछ खो दिया ऐसा नहीं है। जीवन अनमोल है, आपको जीवन में कई परीक्षाओं का सामना करना है। देश के विभिन्न इंस्टीट्यूट द्वारा प्रवेश के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षाएं महज एक मोड़ है, निचोड़ नहीं।

पिछले कुछ समय से यह ट्रेंड लगातार देखा गया है कि प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम जारी होने के बाद कई प्रतिभागी जो प्रवेश से वंचित रह जाते हैं, वो मौत को गले लगा देते हैं। प्रवेश से वंचित होने का अर्थ है, आप इंस्टीट्यूट के विद्यार्थी नहीं बन पाये। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि आपको जीने का हक नहीं है। आप इस दुनिया में अपने माता-पिता के पुत्र/पुत्री बनकर आए हैं, किसी इंस्टिट्यूट के विद्यार्थी बनने के लिये नहीं।

कैसे चलाया 'जियेंगे तभी तो जीतेंगे'?


दैनिक भास्कर द्वारा चलाया गया अभियान 'जियेंगे तभी तो जीतेंगे' एक पोस्टर बेस्ड अभियान है। जयपुर, कोटा और सीकर में कोचिंग जोन की सड़कों के किनारों पर बड़े-बड़े होर्डिंग्स के जरिए से चलाया गया अभियान है। पोस्टर में स्कूल में असफल रहे, महान लोगों की छवि के साथ उनके द्वारा किए गए आविष्कार को भी स्थान दिया है। ये होर्डिंग समान्य होर्डिंग्स के मुकाबले में काफी बड़े है, जो हर किसी को अपनी ओर आसानी से आकर्षित कर सकते हैं।

यह भास्कर और NS पब्लिसिटी द्वारा चलाया गया यह अभियान मर्म को समझते हुए मरहम लगाने जैसा है। यह अभियान बिल्कुल उस क्षेत्र में चलाया जा रहा है, जहाँ दुर्घटना की संभावना सर्वाधिक है। कोई बच्चा मानसिक तनाव में चला जाए तो उसे ये होर्डिंग्स सही राह दिखाएंगे ही साथ ही ये होर्डिंग्स उनके परिजनों को भी संदेश देंगे जब वो उन राहों से गुजरेंगे जो उनके सपने थे लेकिन लाद दिए अपने घरों के चिरागों पर।

क्यों आवश्यकता है ऐसी पहल की -


अक्सर कोटा समेत पूरे राजस्थान से प्रवेश परीक्षाओं के प्रतिभागियों द्बारा आत्महत्या करने की खबरे आती रहती है। कोटा तो काल बन गया हैं प्रवेश से वंचित रहने वालों के साथ कमजोर दिल वाले विद्यार्थियों के लिए। कोटा से सालभर बच्चों द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरे आती रहती है। कब कौनसा बच्चा मौत को गले लगा देता? पता तक नहीं चलता है। कई बच्चे तो प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराने वाले संस्थानों द्वारा साप्ताहिक आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में पिछड़ने के बाद ही जिंदगी की जंग को हार जाते हैं। कई विद्यार्थी पढ़ाई के साथ घर से दूर रहने के तनाव को झेलने में खुद को अनुकूलित नहीं कर पाते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की राह कैरियर की ऊंचाई के साथ मौत की राह पर भी ले जा रही है। 

समाज सोचता है कि कोटा, जयपुर और सीकर का कोचिंग जोन जीवन की दौड़ में ऊंचाई देने वाली राह पर लेकर जाता है। लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। कोचिंग सेंटर का जोन किसी को जीवन के पथ पर ऊंचाई की राह दिखाता है, तो कई घरों के चिराग को लील भी जाता है। अब तक इस राहों ने कितने घरों के चिराग बुझा दिए इस पर कोई बात नहीं करना चाहता। कोई बात कर भी कैसे सकता है? यह मामला आधुनिक समय में तेजी से बढ़ते हुए शिक्षा उद्योग से जुड़ा हुआ है। यहां शिक्षा लेने वाले और देने वाले दोनो हाथो में लाखो की गड्डियां लेकर घूमते हैं। करोडों विज्ञापन पर खर्च करते हैं और लाखो खुद की छवि चमकाने में। 

कोटा के साथ राजस्थान के अन्य शहरो में जैसे ही कोचिंग जोन का विस्तार हुआ है, लोगों ने इसे शिक्षा की बजाय व्यवसाय समझ लिया। लोगों को इतना पता है, कमरा किराये पर देना है तो कोचिंग सेंटर को फीस वसूली। प्रवेश परीक्षा और नैतिक शिक्षा की पढ़ाई से किसी को मतलब नहीं है। कोचिंग संस्थान सालभर खुद को अलग साबित करने के लिए बच्चों पर प्रेशर डालते हैं, लेकिन प्रवेश परीक्षाओं का परिणाम जारी होने के बाद एक ही बच्चे की फोटो चार कोचिंग सेंटर द्वारा छपवा देना इसकी साख का साक्षी हैं। कभी ये तस्वीरें ऑनलाइन के नाम से छापी जाती है तो कभी मटेरियल से पढ़ाई तो कभी कोई अन्य बहाना। 

कोचिंग सेंटर के साथ ही कोचिंग जोन के लोग भी अपने नैतिक कर्तव्यों के प्रति गैर-जिम्मेदार हो गए हैं। कोचिंग सेंटर और कमरा किराये पर देने वाले दोनों का वास्तविक कर्तव्य राशि वसूली तक सीमित हो गया है। दोनों ही अपनी जिम्मेदारी को निभाने की बजाय सिर्फ इसे पेशा मान बैठे हैं। पेशा भी ऐसा जो सिर्फ मुद्रा की भाषा को समझता है, भावनाओ को नहीं। 

क्यों हो रही है भास्कर की सराहना -


जैसा कि आपको पहले ही बता दिया है, कोचिंग शिक्षा देने का संस्थान की बजाय नोट छापने की मशीन बन गया है। यहां छपने वाले नोट पब्लिसिटी करने वाले संगठनों को खरीदने के लिए भी बांटे जाते हैं। कभी कोई इनके खिलाफ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है, ना कमियों पर उंगली उठा सकता है। इनके खिलाफ लिखने वाली कलम की नीलामी लगती है तो उठने वाली उंगली को खरीदा जाता है। ऐसा कई बार देखने को मिला है। जब कोई इनके खिलाफ लिखता है। 

नीलामी और खरीदने के इस दौर में भास्कर द्वारा मर्म को उस क्षेत्र में उठाया जहां उठाना था। आज तक इस क्षेत्र में कोई सरकारी विभाग या गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) भी यह आवाज उठाने में नाकामयाब रहा हैं। एक निजी क्षेत्र का समाचार पत्र द्वारा ऐसे मुद्दे को उठाया जाना सराहनीय कार्य हैं। भास्कर द्वारा की गई यह शुरुआत कोचिंग की दुनिया में एक नया सवेरा लेकर आएगी और लोगों को प्रोत्साहित करेगी इस पहल को आगे ले जाने के लिए। 

समाज की जिम्मेदारी -


भास्कर द्बारा शुरु की गई यह पहल समाज को एक नई दिशा देगी, लोगों की सोच में एक सकारात्मक परिवर्तन करेगी। समाज के जिम्मेदार सज्जन भी सामने आयेंगे और एक नई पहल करेंगे बच्चों के जीवन को बचाने के लिए, ऐसी उम्मीद की जा रही है।

भारत में समाज को हमेशा से जिम्मेदार माना जाता रहा है। अब तक समाज इस मुद्दे पर कभी सक्रिय नहीं दिखा। समाज के पास कोई गाइड लाइन नहीं थी। अब समाज के पास एक गाइड लाइन है, वो उस कदम पर आगे बढ़े। कोचिंग ज़ोन में बने हॉस्टल और किराए पर दिए जाने वाले कमरों में सफ़लता और कैरियर की ऊंचाई वाले बैनर की जगह, जीवन है अनमोल जीना सिखों। ऐसे ही लोग बच्चों से भावनात्मक रूप से जुड़ने का प्रयास करेंगे। 

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