किसी भी विश्वविधालय से आप बिना किसी बैक (एक या एक से अधिक विषय में फैल होना) के डिग्री हासिल कर ले तो आप सौभाग्यशाली हैं। बैक अथवा फैल किया जाना नहीं पढ़ने का दंड ना होकर जैसे कोई अनिवार्य सजा बन गई हो। आपने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया है तो इसे एक प्रसाद के तौर पर आपको अनिवार्य रूप से दे दी जाती है।
बैक या पूरक परीक्षा किसी भी विद्यार्थी की अंकतालिका के साथ उसके भावी केरियर पर दाग लगा सकती है, किंतु इसकी परवाह किसे? इस दाग से बचने के लिए भी विश्वविधालय के पास अपने नियम, कानून-कायदे है। खासतौर से तीन वर्षीय कोर्स या इससे अधिक समय वाले कोर्स में विश्वविद्यालय द्वारा लापरवाही या सजगता कैसे भी इसे प्रसाद मानते हुए अधिकांश विद्यार्थियों में बांट दिया जाता है।
क्या होती है बैक?
बैक एक तरीके से देखा जाए तो पास किए जाने और पूरक परीक्षा के मध्य का एक रास्ता है। इसे आप ना तो पूरक परीक्षा कह सकते हैं और ना ही पूरी तरह से उत्तीर्ण या पास होना कह सकते हैं। हालांकि इसका स्वभाव उत्तीर्ण होने और पूरक परीक्षा दोनों के समान हैं। इस प्रक्रिया में विद्यार्थी की पूरक परीक्षा मान अगली कक्षा में प्रवेश लेने से नहीं रोका जाता है, उसे अगली कक्षा में सभी विषय में उत्तीर्ण विद्यार्थियों की भांति प्रवेश से दिया जाता है, किंतु अगले वर्ष उसे बैक वाले विषय की परीक्षा दे पास होना होता है। अगर अगले वर्ष पास नहीं होता है तो उसके अगले वर्ष भी परीक्षा में सम्मिलित हो सकता है।
उदाहरण से इसे आप यूँ समझ सकते हैं। रमेश 12 वीं पास करने के बाद बी ए प्रथम वर्श में किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश लेता है। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद प्रथम वर्ष की सेमेस्टर परीक्षा में इतिहास विषय में बैक आ जाती है। बैक के बावजूद रमेश को विश्विद्यालय के नियमो के मुताबिक द्वितीय सेमेस्टर में अन्य उत्तीर्ण विद्यार्थियों की भांति प्रवेश मिल जाता है। वह द्वितीय के बाद तृतीय सेमेस्टर के योग्य भी हो जाता है, किंतु उसे तृतीय सेमेस्टर की परीक्षा के साथ प्रथम सेमेस्टर के इतिहास (जिसकी बैक आ गई प्रथम सेमेस्टर में) की परीक्षा देनी होगी। अगर वह इस बार भी प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा को पास नहीं कर पाता है, तब भी वह चतुर्थ और पंचम सेमेस्टर में प्रवेश के योग्य होगा। और पंचम सेमेस्टर के साथ प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा देनी होगी। अगर इस बार भी असफल रहता है तो छठे और अंतिम सेमेस्टर के बाद डिग्री तब तक नहीं मिलेगी, जब तक प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा पास ना कर दे।
कितनी बार बैक परीक्षा को पास करने का मौका मिलता है?
आप ऊपर के उदहारण को देखकर भ्रम में पड़ गए होंगे कि बैक परीक्षा को कभी भी पास किया जा सकता है। यह सत्य नहीं है। बैक परीक्षा को पास करने का सभी विश्वविद्यालय में एकसमान ही नियम है। विद्यार्थी जो कोर्स कर रहा है, उस कोर्स का विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित किए गए समय के दुगुना समय मिलता है, कोर्स के सभी विषय को पास करने के लिए। उदाहरणार्थ रमेश ने तीन वर्षीय बी ए में प्रवेश लिया है, तो उसे डिग्री प्राप्त करने के लिए प्रवेश दिनाँक से अगले छः साल में सभी विषय पास करने होंगे अन्यथा उसकी डिग्री विश्वविद्यालय द्वारा रोक दी जाएगी, यानी जारी ही नहीं कि जाएगी। ऐसे ही किसी दो वर्षीय कोर्स के सभी विषय अगले चार वर्ष में अनिवार्य रूप से पास करने होते हैं।
यह नियम सभी विश्वविद्यालय में यूजीसी के नियमो के अनुसार समान ही है। वर्तमान में सभी विश्वविद्यालय सेमेस्टर स्कीम चला रहे हैं ऐसे में जितने सेमेस्टर का कोर्स है, उसके दुगुने सेमेस्टर की अवधि में सभी विषय की परीक्षा को अनिवार्य रूप से उत्तीर्ण करना होगा।
परीक्षा परिणाम का गोरखधंधा -
भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों ने परीक्षा परिणाम को गोरखधंधा बनाकर रख दिया है। परीक्षा जैसे कोई परीक्षा ना होकर कोई एटीएम है, जब चाहो इससे पैसे निकाल सकते हैं। परीक्षा से पैसे कमाने का सभी विश्वविद्यालय ने धंधा बना लिया है। इसी धंधे के चलते परीक्षा अब विश्वविद्यालयों के लिए एक कमाऊ पूत बन गया है। विश्वविद्यालय की वित्त शाखा मन ही मन उन लोगों को धन्यवाद देती रहती है, जिन्होंने पूरक परीक्षा को हटाकर बैक का सिस्टम इजाद किया। यह बैक वाला सिस्टम विश्वविद्यालयों की तिजोरी भरने में बेहतर साबित हो रहा है।
लगभग सभी विश्विद्यालय में बैक का सिस्टम हैं, ऐसे में किसी विद्यार्थी को अगर प्रथम सेमेस्टर में किसी विषय में बैक दे दे तब भी वह द्वितीय सेमेस्टर में समान्य रुप से उत्तीर्ण विद्यार्थी की भांति प्रवेश ले सकता है। विश्वविद्यालय इसी का फायदा उठाते हुए अधिकांश विद्यार्थियों के किसी भी सेमेस्टर में बैक दे देता है। इसके बाद विद्यार्थी कॉपी के पुनर्मूल्यांकन के लिए मोटी फीस भरकर आवेदन करते हैं। यह फीस विषय अथवा पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किए गए विषय संख्या से निर्धारित होती है। सभी विश्वविद्यालय पुनर्मूल्यांकन के लिए ₹ 500-700 तक एक कॉपी अथवा विषय की फीस लूट रहे हैं।
विश्वविद्यालयों द्वारा जानबूझकर बच्चों के बैक दे दी जाती है। पुनः परीक्षा देने के डर और अगले वर्ष भी परीक्षा देने के लिए परीक्षा फीस देने के डर से बच्चे पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन करते हैं। जितने पुनर्मूल्यांकन के आवेदन करते हैं, उसमे से 70% को उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। कई बार तो किसी एक विषय में पूरी कक्षा को ही फैल कर देते हैं, और पुनर्मूल्यांकन मे सब को पास। विश्वविद्यालय द्वारा की जाने वाली ऐसी हरकत किसी गोरखधंधे की तरफ इशारा कर रही है।
बैक देने से विश्वविद्यालयों को फायदा -
हमने पहले ही बैक को गोरखधंधा कहा है, ऐसे में किसी के मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि धन्धा तो फायदे के लिए किया जाता है। विश्वविद्यालयों को किसी को फैल करने में क्या फायदा हो सकता है? अगर आपके मन में ऐसा कोई प्रश्न उठ रहा है, तो आपकी इस जिज्ञासा को भी हम जरूर शांत करने के प्रयास करेंगे। ऐसे में आप निम्न तथ्यों पर गौर करे ताकि आप विश्विद्यालय के इस गोरखधंधे और उसे होने वाले फायदे को आसानी से समझ सके।
- विद्यार्थी को किसी एक या अधिक विषय में फैल करने या बैक देने पर वह मोटी रकम चुका पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन करता है।
- विश्विद्यालय विद्यार्थी से एक विषय की ₹ 500/- फीस वसूली करता हैं, पुनर्मूल्यांकन करने वाले शिक्षक को प्रति कॉपी ₹ 20/- देता है, ऐसे में ₹ 480/- का सीधा फायदा।
- विश्विद्यालय द्वारा बैक के पुनर्मूल्यांकन के परिणाम आने तक अंकतालिका तक नहीं छापी जाती है। जो किस तरफ इशारा करती है?
- अगर विद्यार्थी पुनर्मूल्यांकन ना कराए तो अगले बर्ष परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए अतिरिक्त फीस की वसूली की जाती है।
- पूरक परीक्षा की तरह मान अगली कक्षा या सेमेस्टर में बैठने से रोका नहीं जाता है, जिससे विद्यार्थियों द्वारा हड़ताल करने का डर शून्य हो गया है।
उपर्युक्त सभी बिंदु इस बात को स्पष्ट करते हैं कि बैक का सिस्टम विश्वविद्यालयों द्वारा सोची समझी साजिश के तहत लागू किया या इसे एक अवसर मान सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ इसका फायदा उठाने लगे, यह स्पष्ट नहीं कह सकते हैं। किंतु विद्यार्थियो के लिए यह एक लूट का कारण बनने के साथ ही मानसिक परेशानी देने का तरीका बन गया है।
शिक्षा नहीं व्यवसाय -
आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के कई बिंदु और तरीके इसे शिक्षा नहीं बल्कि एक व्यवसाय बना रहे हैं। ये तरीके शिक्षा में किसी गुणवत्ता पर जोर देने की बजाय फीस की वसूली पर अधिक जोर दे रहे हैं। आधुनिक शिक्षा में विश्वविद्यालय द्वारा किसी कौशल के विकास को बढावा देने के स्थान पर उसे धक्के मार पास करने और अधिक से अधिक लोगों को अपनी और आकर्षित करने पर अधिक जोर दे रहा है। आधुनिक समय में विश्वविद्यालय द्वारा ऑफर किए जाने वाले कोर्स इसे निम्न कारण से व्यवसाय बना रहे हैं -
- किसी कौशल का विकास करने के स्थान पर केवल लिखित परीक्षा।
- व्यवहारिक प्रश्नो के स्थान पर सीधे प्रश्न।
- सैद्धांतिक प्रश्नो के स्थान पर वैकल्पिक प्रश्न।
- विश्वविद्यालयों में कक्षाओं पर जोर देने के स्थान पर आंतरिक मूल्यांकन पर जोर।
- एक ही कोर्स के अलग-अलग नाम देकर भारी भरकम फीस की वसूली।
आधुनिक शिक्षा को प्राप्त करने के बाद व्यावहारिक कौशल तो दूर की बात सैध्दांतिक ज्ञान तक नहीं होता है। बच्चे किताब के स्थान पर वैकल्पिक प्रश्नो को पढकर डिग्रीधारी हो रहे हैं। वैकल्पिक प्रश्नों के बावज़ूद फैल कर फिर पास किया जाना संदेह उत्पन्न करता हैं।
क्यों बच्चे दे विश्वविद्यालय कि गलती की फीस? -
विश्वविद्यालय द्वारा पुनर्मूल्यांकन के नाम पर किए जा रहे गोरखधंधे में एक प्रश्न हमेशा से ही गौण रहा है। विश्वविद्यालय द्वारा गलत तरीके से बच्चों को फैल किए जाने मे गलती किसकी है? विश्वविद्यालय की या बच्चे की। हो सकता है इस प्रश्न से आपको थोड़ा गुस्सा आ रहा होगा, भला यह क्या प्रश्न है? साथ ही आपके दिमाग में मेरी तरह उत्तर आ रहा होगा विश्वविद्यालय की। इसमें किसी बच्चे की गलती कैसे हो सकती है? विश्वविद्यालय ने गलत कॉपी चेक कर या अन्य किसी गलत तरीके से बच्चे को फैल किया, फिर पुनर्मूल्यांकन में पास कर दिया। मतलब साफ गलती विश्वविद्यालय की है।
लेकिन यह तर्क गलत है कि विश्वविद्यालय की गलती है। बच्चे को विश्वविद्यालय ने जानबूझकर ही फैल किया हो, लेकिन गलती बच्चे की है। बच्चे की गलती है, तभी तो उससे जुर्माना (पुनर्मूल्यांकन फीस) की वसूली की जा रही है। वो पुनर्मूल्यांकन में पास हो या फैल कोई फर्क़ नहीं पड़ता, विश्वविद्यालय उससे हर हाल में जुर्माना वसूली करेगा। यह विश्वविद्यालय के हक में एकतरफ़ा कानून ही विश्वविद्यालय को इसे गोरखधंधा बनाने के लिए नकारात्मक तरीके से प्रोत्साहन दे रहा है। शिक्षक भी गलत तरीके से कॉपी जांच रहे हैं।
विश्वविद्यालयों के पास जो शक्ति है, उसका दुरुपयोग हो रहा है। इसे विद्यार्थियों को मानसिक परेशानी देने के रुप में उपयोग में लिया जा रहा है। इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाना दुखदायी है।
इसे कैसे रोका जा सकता है? -
विश्वविद्यालयों द्वारा पुनर्मूल्यांकन के नाम से जो गोरखधंधा किया जा रहा है, यह बच्चों में तनाव उत्पन्न करने के साथ मानसिक परेशानियों को जन्म दे रहा है। विश्वविद्यालयों में गलत तरीके से या बिना जांच के ही नंबर दिए जाने के मामले दिनोदिन बढ़ रहे हैं, ऐसे में इससे निपटना अति आवश्यक है। इससे निपटने के लिए यूजीसी को नियम बनाने चाहिए ताकि इस परेशानी से निपटा जा सके। इससे निपटने के लिए कुछ ऐसे नियम बनाये जा सकते हैं -
- पुनर्मूल्यांकन का परिणाम आवेदन के 10 दिन के भीतर जारी किया जाए।
- पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन पर बच्चे को अपनी कॉपी की प्रतिलिपि प्राप्त करने का हक हो, जो आवेदन के तीन दिन के भीतर दी जाए।
- विद्यार्थियों के पास होने पर या अंको में 10% तक परिवर्तन होने पर विश्विद्यालय द्वारा वसूली गई पुनर्मूल्यांकन फीस पुनः 7 दिन के भीतर बिना किसी आवेदन के ऑनलाइन तरीके से विद्यार्थियों को लौटाई जाए।
- पुनर्मूल्यांकन के लिए होने वाले खर्च की राशि तब कॉपी जांचने वाले शिक्षक से वसूली जाए जब विद्यार्थियों के अंक परिवर्तित हुए हो।
- पुनर्मूल्यांकन के लिए कॉपी चेक होने के लिए भेजी जाए तब मूल जांच के दौरान दिए अंकों का खुलासा नहीं हो। इसके लिए अंकतालिका को हटा देना चाहिए।
- शिक्षक जांच के दौरान अंक या विशेष चिह्न कॉपी में ना बनाये।
- कॉपी जांच के लिए देने से पहले रोल नंबर के स्थान पर कोड का उपयोग किया जाए।
जिस दिन विश्वविद्यालय बच्चों की जगह अपनी और अपने शिक्षको की गलती मान लेगा, उस दिन यह गोरखधंधा बंद हो जाएगा। उस दिन ना सिर्फ यह गोरखधंधा ही बंद होगा बल्कि शिक्षा, शिक्षा बन जाएगी।
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